Darpan - 1 in Hindi Horror Stories by Raj Phulware books and stories PDF | दर्पण - भाग 1

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दर्पण - भाग 1


📖 दर्पण भाग 1 

✍️ लेखक: राज फुलवरे


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अध्याय 1 — दर्पण का पहला दर्शन

संग्राम टूर्स अँड ट्रॅव्हल्स…
नाम तो छोटा था, मगर मेरे लिए ये मेरे सपनों की शुरुआत थी।
अभी कुछ ही हफ्ते हुए थे जब मैंने अपनी नई चार पहिया गाड़ी निकाली थी — चमचमाती सफेद रंग की “Ertiga”, जिसकी खुशबू अभी तक नई जैसी थी।

मेरी दुनिया अब इसी गाड़ी के चारों तरफ घूमती थी।
सुबह से रात तक — कभी ओला, कभी उबर, कभी रैपिडो — जो भी राइड मिल जाए, मैं ले लेता।
भाड़ा ठीक मिलता था, पेट्रोल के बाद कुछ पैसे बच भी जाते।
माँ कहती,

> “बेटा, हर मेहनती को एक दिन भगवान फल देता है।”



मैं मुस्कुराकर जवाब देता,

> “आई, फल तो मिलेगा… पर अभी बीज बोने का वक्त है।”



मेरे मन में हमेशा एक सपना था —
अपना खुद का छोटा-सा ऑफिस, दस–बारह गाड़ियाँ, और उस पर बोर्ड लिखा हो —
“संग्राम टूर्स अँड ट्रॅव्हल्स — भरोसे का सफर”


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उस दिन की सुबह भी बिल्कुल आम थी।
मैंने जल्दी उठकर गाड़ी साफ की, टायर में हवा देखी, और मंदिर में अगरबत्ती जलाई।
माँ ने दाल-चावल का टिफिन पकड़ा दिया,

> “जरा ध्यान से चलाना रे… सड़क पर आजकल बहुत हादसे हो रहे हैं।”



> “अरे आई, मैं हूँ न! टेंशन मत ले,”
मैंने हँसकर कहा और निकल पड़ा।




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दोपहर का वक्त था।
सूरज सिर पर आग बरसा रहा था।
मैंने अभी एक राइड छोड़ी थी और आगे सिग्नल पर ट्रैफिक में फँस गया।
सामने एक छोटा-सा महादेव का मंदिर था — सड़क के बिल्कुल किनारे।
वहाँ अक्सर लोग नारियल चढ़ाते दिखते थे, और मंदिर के बाहर एक बुजुर्ग पुजारी बैठते थे —
पंडित मोरे जी, जिनसे मेरा रोज़ का “राम-राम” वाला रिश्ता था।

मैंने गाड़ी साइड में लगाई।
मोरे जी ने देखा तो मुस्कुराए,

> “संग्राम बेटा, आज जल्दी लौट आया?”



> “हाँ बाबा, बस एक बोतल पानी पी लूँ, फिर निकलता हूँ।”



मैंने बोतल खोली, एक घूंट पिया, और जैसे ही नज़र रियर-व्यू मिरर पर पड़ी…
मेरी उँगलियाँ काँप गईं।

मिरर में दो चमकते हुए, ठंडे आँखें नज़र आईं —
किसी इंसान की नहीं, किसी अंजान साये की।

मैंने झट से पीछे पलटकर देखा —
गाड़ी में कोई नहीं था।
सीट खाली थी।
दरवाज़ा बंद था, खिड़कियाँ ऊपर थीं।

> “क्या बकवास है ये…”
मैंने खुद से कहा,
“थक गया होगा… गर्मी में दिमाग घूम गया।”



मैंने इंजन चालू किया और आगे बढ़ गया, लेकिन दिल में अजीब-सी घबराहट थी।
मुझे लगा जैसे कोई मेरे साथ बैठा हो — अदृश्य, पर मौजूद।


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रात को घर पहुँचा तो माँ ने पूछा,

> “क्या हुआ रे? चेहरा इतना पीला क्यों पड़ा है?”



> “कुछ नहीं आई, बस थोड़ी थकान है।”



> “काम कम कर बेटा, गाड़ी नई है… धीरे चला।”



मैंने सिर हिलाया और चुपचाप खाना खा लिया।
नींद नहीं आई।
वो मिरर, वो आँखें — बार-बार याद आ रही थीं।


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अगले दिन सुबह फिर गाड़ी उठाई।
मैंने खुद से कहा,

> “आज कुछ नहीं होगा। सब ठीक है।”



शाम को एक लंबी राइड मिली — पुणे सिटी तक।
ग्राहक था — राजीव, एक आईटी कंपनी का इंजीनियर।
राइड के दौरान उसने पूछा,

> “भाई, नई गाड़ी लगती है, कितने की पड़ी?”



> “हां, नई है सर, EMI पर ली है। अभी शुरू किया है अपना संग्राम टूर्स।”



> “शाबाश यार, ऐसा ही जोश बनाए रखो।”



हम बातें करते हुए शहर में घुसे।
राजीव को छोड़कर जब मैं वापस लौटा,
फिर वही रास्ता, वही मंदिर।

और इस बार… वो फिर से हुआ।


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मैंने मिरर में झाँका —
दो आँखें नहीं, बल्कि एक धुंधली परछाई दिखी।
धीरे-धीरे वो रूप साफ़ होने लगा।

एक औरत का चेहरा —
लंबे काले बाल, पीला चेहरा, और होंठों पर एक अजीब मुस्कान।
उसकी आँखों में दर्द था, लेकिन उस दर्द में एक रहस्य भी था।

मैंने घबराकर ब्रेक मारा।
गाड़ी साइड में रोक दी।
मंदिर के घंटों की आवाज़ दूर से आ रही थी।

मिरर अब साफ था।
सिर्फ़ मेरा चेहरा दिख रहा था।
मैंने माथे पर हाथ फेरा — पसीना ही पसीना।

और तभी…
मेरे पीछे ठंडी हवा का झोंका चला।
ऐसा लगा जैसे किसी ने धीरे से मेरी गर्दन को छुआ हो।

> “क…कौन है?”
मैंने काँपते हुए कहा।



कोई जवाब नहीं।

फिर अचानक, बहुत पास से एक धीमी-सी आवाज़ आई —

> “डरो मत…”



मैंने पलटकर देखा — कोई नहीं था।
पर वो आवाज़ इस बार और साफ़ सुनाई दी।

> “मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ…”



मैंने काँपते हुए पूछा,

> “कौन हो तुम? दिख क्यों नहीं रही?”



मिरर हिलने लगा।
उसमें धुआँ-सा उठा, और फिर उस औरत का चेहरा पूरी तरह नज़र आया।

वो बोली —

> “मेरा नाम कल्पना है…”
“और मेरी कहानी इस दर्पण में कैद है…”



मैं कुछ बोल ही नहीं पाया।
मुँह खोलने की कोशिश की, पर आवाज़ नहीं निकली।
ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरा गला पकड़ लिया हो।

कल्पना फिर बोली —

> “संग्राम… मैं तुझसे कोई नुकसान नहीं करना चाहती।
मैं बस चाहती हूँ कि मेरी बात सुन ले।
अगर तूने मेरी कहानी नहीं सुनी… तो ये दर्पण तुझे कभी चैन से नहीं रहने देगा।”



गाड़ी के बाहर अचानक तूफ़ान-सी हवा चली।
पेड़ झूमने लगे।
मंदिर के घंटे ज़ोर-ज़ोर से बजने लगे।

मैं घबराकर बोला,

> “मैं… मैं सुन रहा हूँ। क्या चाहती हो तुम?”



कल्पना की आँखों में आँसू आ गए।
वो बोली,

> “मेरा सच… मेरी मौत का सच… इस रास्ते से जुड़ा है।
हर दिन जब कोई इस मंदिर के पास से गुजरता है, मैं उसे देखती हूँ…
पर आज पहली बार किसी ने मुझे देखा है।”




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मैं स्तब्ध था।
दिल तेजी से धड़क रहा था।
कल्पना ने मिरर में हाथ बढ़ाया — और कसम से, मुझे लगा कि वो हाथ शीशे से बाहर निकल आया है।

उस पल मैंने महसूस किया —
अब ये सिर्फ़ गाड़ी नहीं रही थी…
ये एक आत्मा का घर बन चुकी थी।


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उस दिन के बाद, मेरी ज़िंदगी वैसी नहीं रही।
हर बार जब मैं मंदिर के पास से गुजरता,
मिरर में कल्पना का चेहरा एक पल के लिए ज़रूर दिखता।
कभी मुस्कुराता, कभी आँसुओं से भीगा।

डर अब कम हो गया था,
पर सवाल बढ़ते जा रहे थे —
वो कौन थी?
क्यों इस दर्पण में फँसी है?
और मुझे ही क्यों दिखाई देती है?